मानवता के वैश्विक नेता आचार्य श्री तुलसी- डाॅ वीरेन्द्र भाटी मंगल

ज्ञानप्रवाह न्युज – बीसवीं शताब्दी में जब पूरा विश्व दो विश्वयुद्धों की विभीषिका,नैतिक ह्रास और संप्रदायवाद की संकीर्णता से जूझ रहा था, तब भारत की धरती पर आचार्य श्री तुलसी एक प्रकाश-पुंज बनकर उभरे। 22 वर्ष की अल्पायु में तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य का पद ग्रहण करने वाले तुलसी ने धर्म को केवल पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं रखा,बल्कि उसे जीवन-धर्म बनाने का ऐतिहासिक कार्य किया। उनका दृष्टिकोण इतना असाम्प्रदायिक था कि जब उनसे उनका परिचय पूछा जाता था, तो वे कहते थे मैं सबसे पहले एक मानव हूं, फिर एक धार्मिक व्यक्ति, फिर एक साधनाशील जैन मुनि और उसके बाद तेरापंथ संप्रदाय का आचार्य। मानवता को संप्रदाय से ऊपर रखने की यह उद्घोषणा ही उनके सम्पूर्ण जीवन दर्शन का आधार बनी, जिसका सबसे सशक्त प्रकटीकरण अणुव्रत आन्दोलन के रूप में हुआ। आचार्य तुलसी के मानवता के प्रति परम हितैषी स्वरूप और उनके अवदानों का विस्तृत मूल्यांकन करना अपने आप में जटिल कार्य है।
अणुव्रत आन्दोलन: नैतिकता का वैश्विक सूत्रपात
आचार्य तुलसी का सबसे बड़ा और क्रांतिकारी अवदान अणुव्रत आन्दोलन है, जिसका शुभारम्भ उन्होंने 2 मार्च 1949 को राजस्थान के सरदारशहर में किया। अणुव्रत का शाब्दिक अर्थ है छोटा संकल्प (अणु यानि छोटा,व्रत यानि संकल्प)। आचार्य तुलसी ने अनुभव किया कि समाज की बड़ी समस्याओं जैसे हिंसा, भ्रष्टाचार, बेईमानी और राष्ट्रीय एकता का अभाव आदि समस्याओं का समाधान किसी बड़े राजनीतिक या कानूनी सुधार से नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर आत्म-अनुशासन और चरित्र-निर्माण से ही संभव है।
अणुव्रत दर्शन के मूल तत्व
अणुव्रत किसी विशेष धर्म या संप्रदाय पर आधारित नहीं है। यह आन्दोलन मुख्यतः व्यवहार की शुद्धि, नैतिकता, प्रामाणिकता और संयम पर जोर देता है। आचार्य तुलसी ने जैन धर्म के महाव्रतों (साधुओं के लिए) को सामान्य गृहस्थों के जीवन के अनुकूल बनाकर अणुव्रतों की एक आचार संहिता तैयार की। इसके प्रमुख नियम मानव मात्र के लिए सार्वभौमिक थे, जिनमें शामिल हैं-अहिंसा और अनाक्रमण-किसी भी निरपराध प्राणी की जानबूझकर हत्या न करना और अनाक्रमण की भावना रखना। सत्य और प्रामाणिकता-व्यापार, राजनीति और सामान्य व्यवहार में ईमानदारी और प्रामाणिकता बनाए रखना। अचैर्य (चोरी न करना)-किसी भी प्रकार की चोरी, धोखाधड़ी या काला बाजारी से दूर रहना। नशामुक्ति और सामाजिक बुराइयों का त्याग-मद्यपान, मांसाहार और अन्य व्यसनों से दूर रहना। साम्प्रदायिक सद्भाव-धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास रखना और किसी व्यक्ति, वर्ग या धर्म के विरुद्ध दुर्भावनापूर्ण आक्षेप न करना।
अणुव्रत ने धर्म को मंदिरों से निकालकर व्यक्ति के दैनिक आचरण का हिस्सा बना दिया। यह एक ऐसा जन-धर्म बन गया, जिसने लाखों लोगों को छोटे-छोटे नैतिक संकल्प लेने के लिए प्रेरित किया, जिससे समाज के खंड-खंड में व्याप्त बुराइयों को मिटाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। यह विचार कि आत्मसंयम ही जीवन है और छोटे संकल्पों से बड़ा परिवर्तन संभव है, मानवता के लिए आचार्य तुलसी का अद्वितीय उपहार था।
महिला सशक्तिकरण और सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन
आचार्य तुलसी ने समाज में व्याप्त कई रूढ़ियों और कुरीतियों पर प्रहार किया, जिनमें महिला सशक्तिकरण का उनका कार्य अत्यंत उल्लेखनीय है। घूंघट प्रथा का विरोध-उन्होंने घूंघट प्रथा (पर्दा प्रथा) को समाप्त करने के लिए देशभर में व्यापक प्रयास किए। उनका मानना था कि महिलाओं को शिक्षा और विकास के समान अवसर मिलने चाहिए और उन्हें संकीर्ण सामाजिक बंधनों से मुक्त होना चाहिए। शिक्षा का प्रचार-उन्होंने साध्वियों के बीच शिक्षा के प्रसार पर विशेष जोर दिया, जिससे वे धर्म और दर्शन के साथ-साथ साहित्य, कला और आधुनिक ज्ञान में भी पारंगत हो सकें। उन्होंने तेरापंथ की महिलाओं में आत्म-जागरण की ज्योति जलाई और उनके विकास के द्वार खोले।
दलितों के मसीहा-आचार्य तुलसी ने जाति और रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव, खासकर अस्पृश्यता अछूत मानने की प्रथा का कड़ा विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, बुराई अछूत हो सकती है,बीमारी अछूत हो सकती है,गंदगी अछूत हो सकती है पर मनुष्य कैसे अछूत हो सकता है? उन्होंने दलितों और शोषितों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए,जिससे उन्हें दलितों के मसीहा का सम्मानजनक पद प्राप्त हुआ।
आत्मिक शुद्धि के उपकरण-प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान
आचार्य तुलसी ने केवल बाहरी सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि मनुष्य की आंतरिक चेतना को उन्नत करने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियां भी विकसित कीं। प्रेक्षाध्यान-यह आत्म-निरीक्षण और आत्म-परिवर्तन की एक ध्यान प्रणाली है। आचार्य तुलसी ने इस विधि को आधुनिक जीवनशैली के अनुकूल बनाया, ताकि मानसिक शांति, भावनात्मक संतुलन और आत्मिक शुद्धि प्राप्त की जा सके। आज प्रेक्षाध्यान न
केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपनाया जा रहा है।
जीवन विज्ञान-यह एक शैक्षिक कार्यक्रम है जिसे आचार्य तुलसी ने विकसित किया। इसका उद्देश्य चरित्र निर्माण और नैतिक मूल्यों को औपचारिक शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना था। इसके माध्यम से, छात्रों को आत्म-अनुशासन, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और संतुलित जीवन जीने की कला सिखाई जाती है, जिससे वे बेहतर नागरिक बन सकें।
तीर्थंकरों की परंपरा में युग-प्रधान
आचार्य तुलसी को उनके अभूतपूर्व योगदानों के लिए 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि द्वारा ’युग-प्रधान’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। इस उपाधि ने जैन संघ के आचार्य के रूप में उनके कद को मानवता के वैश्विक नेता के रूप में स्थापित किया। उन्होंने जैन धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुए भी सभी धर्मों, मतों और पंथों के प्रति सौहार्द का भाव रखा। उनकी दीर्घकालीन आचार्य-पद की अवधि तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णिम काल मानी जाती है। 1995 में, उन्होंने स्वेच्छा से आचार्य पद का त्याग कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को संघ का नेतृत्व सौंप दिया, जो कि पद और सत्ता के प्रति उनके गहन वैराग्य और त्याग की भावना का प्रतीक था। यह कदम स्वयं में एक महान उदाहरण था कि एक नेता सत्ता के मोह से ऊपर उठकर भी समाज को दिशा दे सकता है।
आचार्य श्री तुलसी का सम्पूर्ण जीवन एक खुली किताब है, जो मानव-सेवा ही माधव-सेवा के सिद्धांत को चरितार्थ करता है। उनके अवदान, विशेषकर अणुव्रत आन्दोलन, ने संप्रदाय की सीमाओं से परे जाकर व्यक्ति को नैतिक शुद्धि,सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपनी पदयात्राओं से देश की आत्मा को जगाया, महिला सशक्तिकरण की नींव रखी, और प्रेक्षाध्यान के माध्यम से आंतरिक शांति का मार्ग दिखाया। उनका मानना था कि एक बेहतर समाज का निर्माण तभी संभव है जब हर व्यक्ति अपने जीवन में छोटे-छोटे नैतिक संकल्पों का पालन करे। आचार्य तुलसी का मानवता के प्रति यह समर्पण उन्हें वास्तव में मानवता का परम हितैषी बनाता है, जिसकी विरासत युगों-युगों तक मानव जाति को प्रेरणा देती रहेगी।
– डाॅ वीरेन्द्र भाटी मंगल -वरिष्ठ साहित्यकार,लाडनूं (राजस्थान)
